Thursday 19 September 2013

कहना है तुमसे









नयन खुले अधखुले
सहमी सहमी है हवाएं
पलकों पर बोझिल
बेरहमी सपनों की

  लहरे लहरे केशों की
  बिखरी परिभाषा
  अधरों पर सुर्ख हो रही
  अतृप्त मन की आशा

उठा नहीं पाते जो
झुकाते हैं पलकें
मिला नहीं पाते हैं अब
अपने आप से ही नजरें

  बंधते जा रहे हैं
  मेरे ही अल्फाजों में
  सिमटते जा रहे हैं
  मेरे ही अहसासों में

दूर क्षितिज नीलांचल फैला
अपनी बांह पसारे
जीवन नौका पर बैठे हैं
मंजिल हमें निहारे

  कितने ही तूफ़ान घिरे
  पर कभी न हिम्मत हारा
  अरूणिम संध्या और उषा से
     संगम हुआ हमारा 

12 comments:

  1. कितने ही तूफ़ान घिरे
    पर कभी न हिम्मत हारा
    अरूणिम संध्या और उषा से
    संगम हुआ हमारा
    बहुत सुन्दर पंक्तियाँ .

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  2. बहुत सुन्दर रचना..

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  3. सुन्दर रचना।। आभार सर जी।

    नई कड़ियाँ : मकबूल फ़िदा हुसैन

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  4. Replies
    1. सादर धन्यवाद !पूरण जी आभार.

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  5. दूर क्षितिज नीलांचल फैला
    अपनी बांह पसारे
    जीवन नौका पर बैठे हैं
    मंजिल हमें निहारे.
    Behatarin kavita...Thank you so much for sharing with us...

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  6. सादर धन्यवाद ! जोशी जी आभार.

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  7. सच्ची, सहज दिल की बात ..

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  8. आप की इस प्रविष्टि की चर्चा कल {बृहस्पतिवार} 26/09/2013 को "हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल {चर्चामंच}" पर.
    आप भी पधारें, सादर ..

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