Monday, 29 December 2014

रात बीता हुआ सवेरा है



जब जागो तभी सवेरा है
रौशनी आती मिटता अँधेरा है
दरख्तों से छन कर आती रही
हर तरफ खुशबुओं का डेरा है

वीरानियों में गूंजती आवाजें
फ़जां में पर्बतों का डेरा है
हमसफ़र साथ न चले हम-तुम
इक राह तेरा इक राह मेरा है

कितने दिन बीते रहगुजर नहीं
वीरानियों में भूतों का डेरा है
तेरी जहाँ से कायनात रौशन
जिंदगी की सांझ अब सवेरा है

जागी आँखों में दिखाई देते सपने
बंद आखों में आंसुओं का डेरा है
दौलत से किस्मत बदलते देखा
कहीं उजाला कहीं अँधेरा है

 होना था जहाँ हो सके हम
किस्मत का चारों ओर घेरा है
 मुकां आसां से नहीं मिलतीराजीव
रात बीता हुआ सवेरा है.

Sunday, 21 December 2014

कौन सी दस्तक


सूनुं कौन सी दस्तक
न जाने कितनी बार
कितने द्वारों पर
देता रहा दस्तक !

जन्म हुआ तो
माता-पिता ने दी
अस्पतालों,चिकित्सकों
के दरवाजों पर दस्तक !

काबिल हुआ अपने
क़दमों से चलने लायक
माता-पिता देते रहे
अंग्रेजी स्कूलों में दस्तक !

पर ! दस्तक मूक रही
पैसों की खनखनाहट नहीं
न हुआ दाखिला
व्यर्थ रहा दस्तक !

सरकारी स्कूलों से होकर
पहुंचा कालेजों में
अध्यापकों के दरवाजों पर
देता रहा दस्तक !

डिग्री हाथ लिए
चला बेरोजगारों के साथ
एक अदद नौकरी पाने
देता रहा दस्तक !

अब है वो समय
बैठे जिंदगी के कमरे में
आ रही तीन दिशाओं से
तीन द्वारों से दस्तक !

एक द्वार पर
दौलत की दस्तक
दूसरे पर ईमान
और सम्मान की दस्तक !

तीसरे द्वार पर
ठीक सामने की दिशा में
इस दुनियां से कहीं दूर
ले जाने वाली दस्तक !

दस्तकों की आहटों से
हूं असमंजस में
खोलूं कौन से द्वार
सुनूं कौन सी दस्तक !

    

Monday, 15 December 2014

यादें

नयन खुले 

खोये खोये से

कहीं यादों के 

खंडहर में 

कहीं भविष्य के 

प्रांगण में


मन का पंछी 

बस में नहीं 

उड़ता फिरता 

सपनों के 

असीमित गगन में


आधा आज

सताता है

बीते कल की 

यादों में  


आधा और

महकता है 

आने वाले 

कल के सपनों में.

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