बीत गए दिन
बीत गए दिन गुड़ियों वाले
परियों वाली रात गयी
पंख लगाकर उड़ी कल्पना
चाहत जागी नयी नयी
मांग अटपटी सी रखती है
तन्हाई में आज उमर
पलक मूंदते ही आ जाता
सपनों में एक राजकुंवर
मानसरोवर के शतदल ज्यों
मधुबन में कोयल की गुंजन
खींच रहा विपुल वेग से
हाय ! तुम्हारा यह भोलापन
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वाह !
ReplyDeleteबहुत खूब
ReplyDeleteबढ़िया....
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (16-03-2015) को "जाड़ा कब तक है..." (चर्चा अंक - 1919) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सादर आभार.
Deleteबहुत खूब ... सपनों के राजकुमार की कल्पना तो भोले मन की साध है ...
ReplyDeleteसुन्दर गीत ...
सुंदर पंक्तियाँ
ReplyDeleteमाधुर्य से संसिक्त रचना रसभरी।
ReplyDeleteमाधुर्य से संसिक्त रचना रसभरी।
ReplyDeleteवाह वाह बहुत खूब...
ReplyDeleteएक नई ताज़गी लिए हुए आपकी पंक्तिया.
बहुत खूब कही रविकर भाई .मुबारक .
ReplyDeletebadhiya kavita...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ! कुंवारे सपनों का सजीव चित्रं !
ReplyDeleteसुंदर गीत के लिए बहुत बधाई
ReplyDeleteबहुत खूब रविकर जी
ReplyDeleteक्षमा चाहता हूँ गलत नाम लिख दिया
Deleteउत्तम रचना
ReplyDeleteबहुत ही शानदार रचना। सपनो का सजीव प्रस्तुतिकरण।
ReplyDeleteसुन्दर रचना , सुन्दर छंद
ReplyDeleteसुंदर गीत ... बधाई
ReplyDeleteBahot khub sir
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