तलाश है
अपनों के बीच अपनापन तलाशता हूँ
मकानों के बीच घर तलाशता हूँ
इतना खो गया हूँ दुनियाँ की भीड़ में
खुद में ही खुद को तलाशता हूँ||
आजकल आदमी का हुलिया बदल गया है
अब आदमी के बीच आदमी को तलाशता हूँ
बहुत देखा है संबंधों की गहराई
अब सम्बन्ध में सम्बन्ध तलाशता हूँ ||
इंसानियत तो अब दिखाई देता नहीं कहीं
इंसानों के बीच इंसानियत तलाशता हूँ
जाने कहाँ से आ गया है आबादियों का रेला
आबादियों में तन्हाईयाँ तलाशता हूँ ||
वफ़ा का दुनियाँ में तकाजा न रहा
बेवफाई में वफ़ा तलाशता हूँ
अंधेरों में जीना सीख लिया है 'राजीव'
रौशनी में रौशनी को तलाशता हूँ||
बहुत अच्छी गज़ल.
ReplyDeleteधन्यवाद ! सराहना के लिए आभार .
Deleteआजकल आदमी का हुलिया बदल गया है
ReplyDeleteअब आदमी के बीच आदमी को तलाशता हूँ
बहुत देखा है संबंधों की गहराई
अब सम्बन्ध में सम्बन्ध तलाशता हूँ
अच्छी पंक्तियाँ .
सादर धन्यवाद ! सराहना के लिए आभार .
Deleteक्या सुन्दर भाव है ...
ReplyDeleteसादर धन्यवाद !अमृता जी . मेरे ब्लॉग पर आने और प्रतिक्रिया एवम् सराहना के लिये आभार .
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