Sunday, 25 August 2013

तलाश है


















अपनों के बीच अपनापन तलाशता हूँ

मकानों के बीच घर तलाशता हूँ

इतना खो गया हूँ दुनियाँ की भीड़ में

खुद में ही खुद को तलाशता हूँ||

 

आजकल आदमी का हुलिया बदल गया है

अब आदमी के बीच आदमी को तलाशता हूँ

बहुत देखा है संबंधों की गहराई

अब सम्बन्ध में सम्बन्ध तलाशता हूँ ||

 

इंसानियत तो अब दिखाई देता नहीं कहीं

इंसानों के बीच इंसानियत तलाशता हूँ

जाने कहाँ से आ गया है आबादियों का रेला

आबादियों में तन्हाईयाँ तलाशता हूँ ||

 

वफ़ा का दुनियाँ में तकाजा न रहा

बेवफाई में वफ़ा तलाशता हूँ

अंधेरों में जीना सीख लिया है 'राजीव'

रौशनी में रौशनी को तलाशता हूँ||

 

6 comments:

  1. बहुत अच्छी गज़ल.

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    1. धन्यवाद ! सराहना के लिए आभार .

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  2. आजकल आदमी का हुलिया बदल गया है
    अब आदमी के बीच आदमी को तलाशता हूँ
    बहुत देखा है संबंधों की गहराई
    अब सम्बन्ध में सम्बन्ध तलाशता हूँ
    अच्छी पंक्तियाँ .

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    Replies
    1. सादर धन्यवाद ! सराहना के लिए आभार .

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  3. क्या सुन्दर भाव है ...

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  4. सादर धन्यवाद !अमृता जी . मेरे ब्लॉग पर आने और प्रतिक्रिया एवम् सराहना के लिये आभार .

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