Tuesday, 27 August 2013

मन का चन्दन




मन का चन्दन महक उठता है
तन कस्तूरी लगता है
दिल से दिल मिले यदि तो
सारा जग अपना लगता है

तुम्हें देख कानन तरूवर
विहँसने का उपक्रम करते
क्यों शाख पे लिपटी लताएं
क्यों पवन मंद मंद बहते

मरूस्थल में भी फूल खिलाना
तुमको ही क्यों आते हैं
झरने कैसे इठलाते हैं
पंछी क्यों सुर में गाते हैं

दसों दिशाओं से सुरभित
मानव मन की कस्तूरी
मन से मन यदि मिला रहे
तो कहाँ किसी से यह दूरी

जीवन का व्यापार यही है
जग की सारी प्रणय कहानी
तुममें ही सब छिपा हुआ है
सकल जगत ने यह जानी


9 comments:

  1. बहुत अच्छी कविता .

    ReplyDelete
    Replies
    1. धन्यवाद ! सराहना के लिए आभार.

      Delete
  2. दसों दिशाओं से सुरभित
    मानव मन की कस्तूरी
    मन से मन यदि मिला रहे
    तो कहाँ किसी से यह दूरी
    बहुत अच्छी पंक्तियाँ .

    ReplyDelete
    Replies
    1. सादर धन्यवाद ! सराहना के लिए आभार .

      Delete
  3. बहुत सुन्दर लिखा है..

    ReplyDelete
    Replies
    1. सादर धन्यवाद !अमृता जी . मेरे ब्लॉग पर आने और प्रतिक्रिया एवम् सराहना के लिये आभार .

      Delete
  4. सादर धन्यवाद !सक्सेना जी . मेरे ब्लॉग पर आने और प्रतिक्रिया एवम् सराहना के लिये आभार .शीघ्र ही हाजिर होता हूँ.

    ReplyDelete
  5. बहुत सुन्दर पंक्तियाँ ....

    ReplyDelete
    Replies
    1. सादर धन्यवाद ! मोनिका जी. सराहना के लिए आभार .

      Delete

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...