Saturday, 28 February 2015

ईमान बिकता नहीं


                                                                   
                            
यहां चेहरे तो लाखों हैं इंसां मगर दिखता नहीं
  पत्थर हाथ में न रखो शीशे का मकां मिलता नहीं 

आदमी आदमी में जबसे भेद होने लगा है 
हाथ मिलता है दिल मगर मिलता नहीं

दोस्त कौन है और कौन है दुश्मन
जानते सब हैं कोई मगर कहता नहीं

जुनूने इश्क के रंग भी अजीब हैं
दर्द तो देता है दवा मगर देता नहीं

खरीदने बिकने की बात क्यों करता है
कैसे खरीदोगे ईमान मगर बिकता नहीं

दरिया किस तरह पार करोगे ‘राजीव’
कश्ती है साहिल मगर दिखता नहीं 
                                                                                                       
       

13 comments:

  1. jante sab hain magar koi kehta nahin--good

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  2. सुंदर एवं हकीकत से भरी कविता.

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  3. वाह! क्या खूब बयां की है ज़माने की सच्चाई!

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  4. सटीक भाव लिए बेहतरीन ग़ज़ल !
    न्यू पोस्ट हिमालय ने शीश झुकाया है !
    न्यू पोस्ट अनुभूति : लोरी !

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  5. यहां चेहरे तो लाखों हैं इंसां मगर दिखता नहीं
    पत्थर हाथ में न रखो शीशे का मकां मिलता नहीं

    वाह , मंगलकामनाएं आपको !

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  6. बहुत ही शानदार रचना है राजीव जी ....आज के हालातों को बयाँ करती सशक्त रचना...

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  7. दुनिया के सच को लिखा है हूबहू ... बहुत खूब ....

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  8. बहुत बहुत शानदार और जानदार कविता।

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  9. बढ़िया ।
    बहुत बार बेच दिया बिकता तो है मगर दिखता नहीं :)

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  10. har line khud me kai sare bhaav samete hue hai...

    is acchi prastuti ke liye dhanyawaad :-)

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  11. जुनूने इश्क के रंग भी अजीब हैं
    दर्द तो देता है दवा मगर देता नहीं

    खरीदने बिकने की बात क्यों करता है
    कैसे खरीदोगे ईमान मगर बिकता नहीं
    बेहतरीन अभिव्यक्ति राजीव जी ! आजकल लेखन कम चल रहा है आपका ?

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