यहां चेहरे तो लाखों
हैं इंसां मगर दिखता नहीं
पत्थर हाथ में न रखो शीशे का मकां मिलता नहीं
आदमी आदमी में जबसे भेद
होने लगा है
हाथ मिलता है दिल मगर मिलता
नहीं
दोस्त कौन है और कौन है
दुश्मन
जानते सब हैं कोई मगर कहता
नहीं
जुनूने इश्क के रंग भी अजीब
हैं
दर्द तो देता है दवा मगर
देता नहीं
खरीदने बिकने की बात क्यों
करता है
कैसे खरीदोगे ईमान मगर बिकता नहीं
दरिया किस तरह पार करोगे
‘राजीव’
कश्ती है साहिल मगर दिखता
नहीं |
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Saturday, 28 February 2015
ईमान बिकता नहीं
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jante sab hain magar koi kehta nahin--good
ReplyDeleteBahut sundar rachna :)
ReplyDeleteसुंदर एवं हकीकत से भरी कविता.
ReplyDeleteवाह! क्या खूब बयां की है ज़माने की सच्चाई!
ReplyDeleteसटीक भाव लिए बेहतरीन ग़ज़ल !
ReplyDeleteन्यू पोस्ट हिमालय ने शीश झुकाया है !
न्यू पोस्ट अनुभूति : लोरी !
यहां चेहरे तो लाखों हैं इंसां मगर दिखता नहीं
ReplyDeleteपत्थर हाथ में न रखो शीशे का मकां मिलता नहीं
वाह , मंगलकामनाएं आपको !
बहुत ही शानदार रचना है राजीव जी ....आज के हालातों को बयाँ करती सशक्त रचना...
ReplyDeleteदुनिया के सच को लिखा है हूबहू ... बहुत खूब ....
ReplyDeletekya kahne...
ReplyDeleteबहुत बहुत शानदार और जानदार कविता।
ReplyDeleteबढ़िया ।
ReplyDeleteबहुत बार बेच दिया बिकता तो है मगर दिखता नहीं :)
har line khud me kai sare bhaav samete hue hai...
ReplyDeleteis acchi prastuti ke liye dhanyawaad :-)
जुनूने इश्क के रंग भी अजीब हैं
ReplyDeleteदर्द तो देता है दवा मगर देता नहीं
खरीदने बिकने की बात क्यों करता है
कैसे खरीदोगे ईमान मगर बिकता नहीं
बेहतरीन अभिव्यक्ति राजीव जी ! आजकल लेखन कम चल रहा है आपका ?