मैं भी कुछ कहता हूँ
कुछ तू भी कहता जा
सारे जहाँ की फ़िक्र न कर
अपनी फ़िक्र करता जा
वक्त बड़ा नाजुक है
इंसां का कोई मोल नहीं
अपनी तक़दीर खुद ही लिख ले
खुद का सिकंदर बनता जा
मेरे सब्र का इम्तिहान न ले
न तू हद से गुजर जा
देख परिंदे भी घर लौट आए
तू भी घर लौट जा
अपनी तक़दीर खुद ही लिख ले
ReplyDeleteखुद का सिकंदर बनता जा - wonderful!
बढ़िया :)
ReplyDeleteसुंदर कविता!
ReplyDeletemanushya ko apne faisle khud hi lene hain, sundar rachna
ReplyDeleteअच्छी रचना.....बधाई....
ReplyDeleteबहुत खूब। सही कहा वक्त बहुत नाजुक है, इंसा का कोई मोल नहीं।
ReplyDeletebeautiful. you expressed the truth in a fascinating way
ReplyDeleteबहुत ख़ूब
ReplyDeleteबातें क्या करेंगे बात से तो भरता नहीं है पेट,
ReplyDeleteआसमान को छू गए हैं दाल सब्जियों के रेट
पक्षियों को खुला आकाश और अपने नियम है
मुझे तो देर तक अभी ओवर टाइम लगाना है ।
बातें क्या करेंगे बात से तो भरता नहीं है पेट,
ReplyDeleteआसमान को छू गए हैं दाल सब्जियों के रेट
पक्षियों को खुला आकाश और अपने नियम है
मुझे तो देर तक अभी ओवर टाइम लगाना है ।
बातें क्या करेंगे बात से तो भरता नहीं है पेट,
ReplyDeleteआसमान को छू गए हैं दाल सब्जियों के रेट
पक्षियों को खुला आकाश और अपने नियम है
मुझे तो देर तक अभी ओवर टाइम लगाना है ।
सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteVery nice poem, i liked this
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना...
ReplyDeleteवक्त बड़ा नाजुक है
ReplyDeleteइंसां का कोई मोल नहीं
अपनी तक़दीर खुद ही लिख ले
खुद का सिकंदर बनता जा
सुंदर भाव राजीव जी !
बहुत ख़ूब प्रस्तुति!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर कविता!
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