Wednesday 28 August 2013

कितना अच्छा लगता है


कितना अच्छा लगता है
यूँ अनायास मिलना
दुनियाँ के गलियारों में
साथ-साथ फिरना

अभी छू गई है
पुरवाई गालों को
दे गया चुनौती कौन
दर्द के उबालों को

 दहलीज को चूम रहे
  आँगन अमलतास के
  उधेड़ दो न अब घूंघट
  क्षणजीवी प्यास के

कितनी भारी है
आँखों का सूनापन
सोया सा लगता है
सांसों का सूनापन

 मन से टकराता है
  ऐसे सन्नाटा
  कंठ में चुभे जैसे
  सेही का कांटा
 
पोर पोर में सरसों फूली
आँखें रसमसाती
मधु अतीत की सुगंध पीकर
पांखें कसमसाती

8 comments:

  1. अच्छी कविता .
    दहलीज को चूम रहे
    आँगन अमलतास के
    उधेड़ दो न अब घूंघट
    क्षणजीवी प्यास के
    बहुत अच्छी पंक्तियाँ .

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    Replies
    1. धन्यवाद ! सराहना के लिये आभार .

      Delete
  2. बहुत अच्छी कविता .

    ReplyDelete
    Replies
    1. सादर धन्यवाद ! सराहना के लिये आपका आभार .

      Delete
  3. Replies
    1. सादर धन्यवाद ! अमृता जी. मेरे ब्लॉग पर आने और प्रतिक्रिया एवम् सराहना के लिये आभार ..

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