नयन खुले अधखुले
सहमी सहमी है हवाएं
पलकों पर बोझिल
बेरहमी सपनों की
लहरे लहरे केशों की
बिखरी परिभाषा
अधरों पर सुर्ख हो रही
अतृप्त मन की आशा
उठा नहीं पाते जो
झुकाते हैं पलकें
मिला नहीं पाते हैं अब
अपने आप से ही नजरें
बंधते जा रहे हैं
मेरे ही अल्फाजों में
सिमटते जा रहे हैं
मेरे ही अहसासों में
दूर
क्षितिज नीलांचल फैला
अपनी
बांह पसारे
जीवन
नौका पर बैठे हैं
मंजिल हमें निहारे
कितने
ही तूफ़ान घिरे
पर
कभी न हिम्मत हारा
अरूणिम
संध्या और उषा से
संगम
हुआ हमारा
कितने ही तूफ़ान घिरे
ReplyDeleteपर कभी न हिम्मत हारा
अरूणिम संध्या और उषा से
संगम हुआ हमारा
बहुत सुन्दर पंक्तियाँ .
बेहद सुन्दर रचना..
ReplyDelete:-)
बहुत सुन्दर रचना..
ReplyDeleteसुन्दर रचना।। आभार सर जी।
ReplyDeleteनई कड़ियाँ : मकबूल फ़िदा हुसैन
bahut sundar abhivyakti...
ReplyDeleteसुन्दर रचना !!
ReplyDeleteसादर धन्यवाद !पूरण जी आभार.
Deleteदूर क्षितिज नीलांचल फैला
ReplyDeleteअपनी बांह पसारे
जीवन नौका पर बैठे हैं
मंजिल हमें निहारे.
Behatarin kavita...Thank you so much for sharing with us...
सादर धन्यवाद ! जोशी जी आभार.
ReplyDeleteसच्ची, सहज दिल की बात ..
ReplyDeleteसादर धन्यवाद ! आभार .
Deleteआप की इस प्रविष्टि की चर्चा कल {बृहस्पतिवार} 26/09/2013 को "हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल {चर्चामंच}" पर.
ReplyDeleteआप भी पधारें, सादर ..