मरघट से मुरदे चिल्लाने लगे
हैं
लौट कर बस्तियों में आने
लगे हैं
इंसान बन गया है हैवान
मुर्दों में भी जान आने लगे
हैं
जानवरों पर होने लगी सियासत
इंसानों से भय खाने लगे हैं
रंगो खून का अलहदा तो नहीं
नासमझ कत्लेआम मचाने लगे हैं
‘राजीव’ जमाने की उलटबांसी न समझे
मुरदे भी मर्सिया गाने लगे
हैं
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कड़वी सच्चाई
ReplyDeleteइसे मैं ले जा रही हूँ
जी ,बिलकुल.
Deleteबहुत सटीक रचना. बहुत सुंदर.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और हकीकत बयान करती रचना।
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ReplyDelete‘राजीव’ जमाने की उलटबांसी न समझे
मुरदे भी मर्सिया गाने लगे हैं ...सटीक
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (11-10-2015) को "पतंजलि तो खुश हो रहे होंगे" (चर्चा अंक-2126) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सादर धन्यवाद !
Deleteसुंदर !
ReplyDeleteउत्कृष्ट प्रस्तुति
ReplyDeleteस्थिति कुछ ऐसी ही विचित्र है- ज़माना उलटवाँसी का ही आ गया है.
ReplyDeleteजानवरों पर होने लगी सियासत
ReplyDeleteइंसानों से भय खाने लगे हैं.
ये सिआसत और न जाने क्या क्या दिखाएगी.
behtareen khayaal aur prastuti!
ReplyDeleteकटु सत्य...बहुत उम्दा प्रस्तुति...
ReplyDeleteसार्थक रचना। इस रचना के बारे में, मैं क्या कहूं। अंतरात्मा को झकझोर कर रख देने वाली रचना। इस रचना का प्रसार दूर दूर तक हो, इसके लिए मैं अपनी फेसबुक पर लेकर जा रहा हूं। सलाम आपके बेहतरीन लेखन को।
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