Tuesday, 6 October 2015

दिल मचल गया होता

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फिर कहीं दिल मचल गया होता
वक्त तक होश में जो रहा होता

इक आग सुलग उठती सीने में
रफ्ता-रफ्ता जो हवा दिया होता

इस उम्र का तकाजा भी क्या कहिए
दिल के हाथों मजबूर न हुआ होता

ये तो अच्छा हुआ लोग सामने न थे
वरना भीड़ से पत्थर उछल गया होता

दर्दे दिल की दवा क्या करिए ‘राजीव’
दिल अपने वश में जो रहा होता

  
    

8 comments:

  1. इस उम्र का तकाजा भी क्या कहिए
    दिल के हाथों मजबूर न हुआ होता

    ये तो अच्छा हुआ लोग सामने न थे
    वरना भीड़ से पत्थर उछल गया होता
    बहुत बेहतरीन श्री राजीव जी !!

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  2. सुन्दर प्रस्तुति...

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  3. This comment has been removed by the author.

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  4. ये तो अच्छा हुआ लोग सामने न थे
    वरना भीड़ से पत्थर उछल गया होता....
    '......
    बहुत सुन्दर

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  5. वाह...बहुत ख़ूबसूरत अशआर...बहुत सुन्दर

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  6. बहुत ही सुंदर पंक्तियां।

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