Monday, 9 December 2013
Monday, 18 November 2013
Monday, 11 November 2013
Sunday, 3 November 2013
कुछ भी पास नहीं है
सब कुछ है देने को
मगर कुछ भी पास नहीं है
यूँ खुद को पिया है कि
हमें प्यास नहीं है
हम तो डूब ही गए
झील सी नीली आँखों में
और तुम हो कि
इस बात का अहसास नहीं है
लूटा है मुझे
मेरे हाथों की लकीरों ने
अपनी ही परछाई पर
अब विश्वास नहीं है
कुछ मुरझाये फूलों से
कमरे को सजाया है
मेरे आँगन में खिलता
अमलतास नहीं है
यूँ टूट के रह जाना
काफी तो नहीं
आने वाले कल का
ये आभास नहीं है
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Sunday, 27 October 2013
Friday, 11 October 2013
प्रिय प्रवासी बिसरा गया
शरद ऋतु में हर साल हजारों ,लाखों की संख्या में साईबेरियाई प्रवासी पक्षी
लाखों मील की दूरी तय कर भारत और अन्य एशियाई देशों में आते हैं .
शरद ऋतु की समाप्ति के पश्चात् क्या सभी वापस लौट पाते हैं ?
कुछ भटक जाते हैं ,तो कुछ अपनों से फिर नहीं मिल पाते .
कितने उसके साथी छूटे जो छूट गए फिर कहाँ मिले पर इन बिछड़ों पर कब अपना शोक मनाता है
(बच्चन जी की कविता के तर्ज पर)
फिर आ गई है बरसात
तुम न आए
आती रही तुम्हारी याद
तुम न आए
छा रही काली घटा चपला चमकती काश ! तुम होते यहाँ पर बाजुओं में तुम्हारी आ सिमटती रह गया रोकर ह्रदय आँखें न रोई बीती यादों में तुम्हारे न जाने कब से खोई हुई मूक वाणी दर्द गहरा गया पूछती हूँ आप अपने से क्या प्रिय प्रवासी बिसरा गया ? |
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Tuesday, 1 October 2013
पुरानी डायरी के फटे पन्ने
अनायास आ जाते
हैं सामने
बीती यादों को
कुरेदती
दुःख - दर्द को
सहेजती
बेरंग जिंदगी को
दिखा जाते
पुरानी डायरी के
फटे पन्ने
बीते लम्हों को
भुलाना
गर होता इतना
आसां
कागजों पर लिखे
हर्फ़ को
मिटाना होता गर
आसां
जिंदगी न होती
इतनी बेरंग
इन्द्रधनुषी
रंगों में मिल जाता
जीवन के विविध
रंग
कुछ सुख के, कुछ दुःख के
जो बिताये तेरे
संग Thursday, 19 September 2013
कहना है तुमसे
नयन खुले अधखुले
सहमी सहमी है हवाएं
पलकों पर बोझिल
बेरहमी सपनों की
लहरे लहरे केशों की
बिखरी परिभाषा
अधरों पर सुर्ख हो रही
अतृप्त मन की आशा
उठा नहीं पाते जो
झुकाते हैं पलकें
मिला नहीं पाते हैं अब
अपने आप से ही नजरें
बंधते जा रहे हैं
मेरे ही अल्फाजों में
सिमटते जा रहे हैं
मेरे ही अहसासों में
दूर
क्षितिज नीलांचल फैला
अपनी
बांह पसारे
जीवन
नौका पर बैठे हैं
मंजिल हमें निहारे
कितने
ही तूफ़ान घिरे
पर
कभी न हिम्मत हारा
अरूणिम
संध्या और उषा से
संगम
हुआ हमारा Thursday, 12 September 2013
चाँद जरा रुक जाओ
चाँद जरा रुक जाओ
आने दो दूधिया रौशनी
सितारों थोडा और चमको
बिखेर दो रौशनी
मैं अपने महबूब को
ख़त लिख रहा हूँ
चांदनी रात में
महबूब को ख़त लिखना
कितना सुकूं देता है
तुम यादों में बसे
या ख्वाबों में
दिल की गहराईयों में
एक अहसास जगा देता है
तुम कितने पास हो
मैं कितना दूर
एक लौ है जो
दोनों में जली हुई
नयनों के कोर से
कभी देखा था तुझे
सिमट आई थी लालिमा
रक्ताभ कपोलों पर
तारों भरी रात में
गीली रेत पर चलते हुए
हौले से छुआ था तुमने
सुनाई दे रही थी
तुम्हारे सांसों की अनुगूंज
नि:स्तब्द्धता को तोड़ते हुए
तुम इतने दूर हो
जहाँ जमीं से आसमां
कभी नहीं मिलता
ये ख्वाब हैं
ख्वाब ही रहने दो
Saturday, 7 September 2013
शब्द ढले नयनों से
इन
प्रणय के कोरे कागज पर
कुछ
शब्द ढले नयनों से
आहत
मोती के मनकों को
चुग
डालो प्रिय अंखियों से
कितने चित्र रचे थे मैंने
खुली हथेली पर
कितने छंद उकेरे तुमने
नेह पहेली पर
अवगुंठन
खुला लाज का
बांच
गए पोथी मन मितवा
जीत
गई पिछली मनुहारें
खिले
फूल मोती के बिरवा
भोर गुलाबी सप्त किरण से
मन पर तुम छाए
जैसे हवा व्यतीत क्षणों को
बीन – बीन लाए
बरसों
बाद लगा है जैसे
सोंधी
गंध बसी हों मन में
मीलों
लम्बे सफ़र लांघकर
उमर हँसी हों मन दर्पण में
नदिया की लहरों से पुलकित
साँझ ढले तुम आए
लगा कि मौसम ने खुशबू के
छंद नए गाए.
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