Saturday, 26 December 2015

तुम्हारे ख़त

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क्या-क्या न बयां कर जाते हैं तुम्हारे ख़त
कभी हँसा कभी रुला जाते हैं तुम्हारे ख़त

मौशिकी का ये अंदाज कोई तुमसे सीखे
कौन सी संगीत सुना जाते हैं तुम्हारे ख़त

खतो-किताबत का रिवायत तुमसे ही सीखा
मजलूम को मकसूस कराते हैं तुम्हारे ख़त

तनहा रातों में सुलग उठता है सीने में
दर्दे दिल की दवा बन जाते हैं तुम्हारे ख़त

‘राजीव’ तुम बिन कट न पाए तनहा सफ़र
बियाबां में ओस की बूंद दिखा जाते हैं तुम्हारे ख़त 

    

Saturday, 19 December 2015

क्या बोले मन

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क्या बोले मन
दिल का दर्द उभरकर
पलकों पर घिर आया
क्यूं बोले मन

बीती रात न जाने कितनी
कलियां फूल बनी मुस्काई
गिरी जहाँ पर बूंद ओस की
किरणों की झलकी अरुणाई

स्मृति के पन्नों में अंकित
विगत के सुमधुर क्षण
व्याकुल ह्रदय के भीतर
जैसे सूर्यास्त से विरही क्षण

न कोई जंजीर
जो बांध सके मन को
पल में विचरे धरती पर
पल में जाए नील गगन को 
    

Wednesday, 9 December 2015

मैं भी कुछ कहता हूँ



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मैं भी कुछ कहता हूँ
कुछ तू भी कहता जा
सारे जहाँ की फ़िक्र न कर
अपनी फ़िक्र करता जा

वक्त बड़ा नाजुक है
इंसां का कोई मोल नहीं
अपनी तक़दीर खुद ही लिख ले
खुद का सिकंदर बनता जा

मेरे सब्र का इम्तिहान न ले
न तू हद से गुजर जा
देख परिंदे भी घर लौट आए
तू भी घर लौट जा 

  
  

Saturday, 5 December 2015

तनहा सफ़र जिंदगी का

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तनहा कट गया जिंदगी का सफ़र कई साल का
चंद अल्फाज कह भी डालिए मेरे हाल पर

मौसम है बादलों की बरसात हो ही जाएगी
हंस पड़ी धूप तभी इस ख्याल पर

फिर कहाँ मिलेंगे मरने के बाद हम
सोचते ही रहे सब इस सवाल पर

इन रस्तों से होकर ख्वाबों में गुजरे
दिखे हैं सहरा चांद हर जर्रे पर

तेरा अक्स जो नजर आ जाए 
दिखे है दूजा चांद नदी के दर्पण पर

आंखें छलक जाती हैं निगाह मिलने पर
हश्र तो ये है तुमसे इस मुलाकात पर

जरा गौर फरमाईए राजीवकी बात पर
चांदनी रात का जिक्र क्यों न हो मुलाक़ात पर 
    

Saturday, 28 November 2015

इक ख्याल दिल में समाया है

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मुद्दत से इक ख्याल दिल में समाया है
धरती से दूर आसमां में घर बनाया है

मोह-माया,ईर्ष्या-द्वेष इंसानी फितरतें हैं
इनसे दूर इंसान कहाँ मिलते हैं

बड़ी मुश्किल से इनसे निजात पाया है
परिंदों की तरह आसमां में घर बनाया है

साथ चलेंगी दूर तक ये हसरत थी
आंख खुली तो देखा अपना साया है

‘राजीव’ उन्मुक्त जीवन की लालसा रखे
आसमां वालों ने जबसे हमसफ़र बनाया है 
    

Tuesday, 10 November 2015

पृष्ठ अतीत की




मत खोलो  
पृष्ठ अतीत की
अब भी बची है
गंध व्यतीत की

शब्द-शब्द बोले हैं
रंग-रस घोले हैं
पृष्ठ-पृष्ठ जिंदा है
पृष्ठ अतीत की

फड़फड़ा उठे पन्ने
झांकने लगे चित्र  
यादों के गलियारों से  
पलकें हुईं भींगी
मत खोलो  
पृष्ठ अतीत की

अब भी बची है
व्यथा व्यतीत की 
    

Tuesday, 3 November 2015

दास्तां सुनाता है मुझे

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जब कभी सपनों में वो बुलाता है मुझे
बीते लम्हों की दास्तां सुनाता है मुझे

इंसानी जूनून का एक पैगाम लिए
बंद दरवाजों के पार दिखाता है मुझे

नफरत,द्वेष,ईर्ष्या की कोई झलक नहीं
ये कौन सी जहां में ले जाता है मुझे

मेरे इख्तयार में क्या-क्या नहीं होता
बिगड़े मुकद्दर की याद दिलाता है मुझे


रुक-रुक कर आती दरवाजे से दस्तक
ये मिरा वहम है या कोई बुलाता है मुझे

उसको भी मुहब्बत है यकीं है मुझको
उसके मिलने का अंदाज बताता है मुझे

'राजीव’ तुम बिन बीता अनगिनत पल
शबे गम में रोज जलाता है मुझे 


    

Tuesday, 27 October 2015

गजरे में बांध लिया मन



गजरे में बांध लिया
प्रिय तुमने मेरा मन
नजरें झुकी-झुकी
लगती क्यों अलसाई
ज्यों फूलों पर छा जाती
सूरज की अरुणाई

लहराते केश ज्यों
रूई की फाहें
तुमसे मिलने को
अनगिनत हैं राहें
मन तो रीता है
तुम संग जीता है
मोहपाश यह कौन सा
सुधबुध खोता तनमन 

गजरे में बांध लिया
   प्रिय तुमने मेरा मन    

Thursday, 22 October 2015

बीते न रैन

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मीठी धूप खिली
महकी फिर शाम
पागल हवा देती
तुम्हारा पैगाम !

महक रही जूही
चहक रही चंपा
थिरक रहा अंगना
बज रहा कंगना !

रात है अंधेरी
छाये काले बादल
फिर याद तुम्हारी
कर देती पागल !

कुछ कहते नैन
अब नहीं चैन
मिल जाएं गले
बीते न रैन !
    

Sunday, 18 October 2015

नई सुबह आई है चुपके से

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नई सुबह
आई है चुपके से
अंधियारा छट गया
आगोश में भर लें
स्वागत करें
नई सुबह का !

फेफड़ों में भर लें
ताज़ी हवा
नई सुबह की
रेत पर चलें
नंगे पांव
छोड़ें क़दमों के निशां
नई सुबह
आई है चुपके से !

पत्तों के कोरों पर
बिछी है मोती
सुबह के ओस की
अंजुरी में भर लें
समेट लें मनके
थोड़ी खुशियां
मन में भर लें
नई सुबह
आई है चुपके से !

मंदिर के चौखट तक
चले जाते हैं कदम
हौले-हौले बजती हैं घंटियां
लोबान के धुएं में
छा जाती है मदहोशी
हो जाता है हल्का मन
नई सुबह आई है चुपके से !


    

Saturday, 10 October 2015

मर्सिया गाने लगे हैं

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 मरघट से मुरदे चिल्लाने लगे हैं
लौट कर बस्तियों में आने लगे हैं

इंसान  बन गया है हैवान
मुर्दों में भी जान आने लगे हैं

जानवरों पर होने लगी सियासत
इंसानों से भय खाने लगे हैं

 रंगो खून का अलहदा तो नहीं
नासमझ कत्लेआम मचाने लगे हैं 

‘राजीव’ जमाने की उलटबांसी न समझे 
मुरदे भी मर्सिया गाने लगे हैं
                                                                                                              

Tuesday, 6 October 2015

दिल मचल गया होता

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फिर कहीं दिल मचल गया होता
वक्त तक होश में जो रहा होता

इक आग सुलग उठती सीने में
रफ्ता-रफ्ता जो हवा दिया होता

इस उम्र का तकाजा भी क्या कहिए
दिल के हाथों मजबूर न हुआ होता

ये तो अच्छा हुआ लोग सामने न थे
वरना भीड़ से पत्थर उछल गया होता

दर्दे दिल की दवा क्या करिए ‘राजीव’
दिल अपने वश में जो रहा होता

  
    
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